Friday 4 January 2013

Naani

टपकते  छप्पर  की  लटकती  फूस  से  टप टप   करता  पानी
उस  सोंधे  सोंधे  घर  में  रहती  थी  कभी  नानी

 

मिटटी  के  चूल्हे  पे  आँखे  जला  जला  कर 
अपने  हाथो  को  तपते  तवे  से  बचा  बचा  कर
महकते  पराठे  की  हर  परत  पे  प्यार  लगा  लगा  कर
एक  कौर  भी  जो  अटके , दौड़  लाती  थी  वोह  पानी
उस  सोंधे  सोंधे  घर  में  रहती  थी  कभी  नानी

 

हर  आम  उसने  चख्खा , मीठा  हुआ  खिलाया
एक  एक  जोड़  करके  सिक्का  गुड्डा  वही  दिलाया
थके  पैरो  पे  अपने  लेकर  झुला  भी  था  झुअलाया
सोते  वक़्त  रोज़  हमको  सुनती  थी  वोह  कहानी
उस  सोंधे  सोंधे  घर  में  रहती  थी  कभी  नानी

 

न  जाने  सिर्फ  गर्मी , ही  क्यूँ  थी  उसको  भाती 
थक  नींद  आ  जो  जाए  अपने  पास  ही  सुलाती
पंखा  बना  के  पल्लू  हर  पहर  झलती  जाती
पर  सोच  मेरा  जाना  न  रुकता  वो  खारा  पानी
उस  सोंधे  सोंधे  घर  में  रहती  थी  कभी  नानी

 

न  घर  रहा  न  छप्पर , न  टप   टप  रही  न  फूस  
पर  आज  भी  है  दिल  को , होता  यही  महसूस 
होती  है  जब  भी  बारिश  मिटटी  पे  पड़ता  पानी
बस  सोचता  हूँ  अब  मैं  कह  दे  कोई  कहानी 
उस  सोंधे  सोंधे  घर  में  रहती  थी  कभी  नानी
उस  सोंधे  सोंधे  घर  में  रहती  थी  कभी  नानी